‘हिंदी सराय : अस्त्राखान
वाया येरेवान’ एक बेहद रोचक , खोजपरक और बौद्धिक यात्रा संस्मरण है . प्रो.
पुरुषोत्तम अग्रवाल की इस पुस्तक की समीक्षा ‘पुस्तक वार्ता’ के अंक ४७ में .
विस्मृत इतिहास की पुनर्पाठ
यदि आप को पता चले कि आपके
पुरखे किसी दूर –दराज के देश में व्यापार के सिलसिले में जाते थे और वहाँ उनकी
तूती बोलती थी तो भारतीय अस्मिता के उस स्वर्णिम काल खंड से मोह क्यों कर न होगा ।
व्यापारिक दृष्टि से हिंदुस्तानी इतने सक्षम और संपन्न थे कि अस्त्राखान के शासन
ने उनकी गतिविधियों को स्थायित्व प्रदान करने के लिए वहाँ एक सराय का भी निर्माण
किया –हिन्दी सराय । भौगोलिक और भाषागत फ़ासलों को पाटता एक सूत्र पुरुषोत्तम
अग्रवाल को इस यात्रा के लिए आमंत्रित करता है , जिसे आप शुरुआत में अतिरिक्त
आग्रह भी कह सकते हैं . लेकिन जब
पुरुषोत्तम अग्रवाल जैसे विचारक इस यात्रा पर जाते हैं तो यह यात्रा वृतांत एक खोजपरक
संस्मरण के साथ ही साहित्यिक और वैचारिक यात्रा के रूप में आकार ग्रहण करता है जो धीरे
–धीरे उनकी इतिहास दृष्टि का भी परिचयक बनता है ।
“2009 में ‘अकथ कहानी प्रेम की’ लिखने के दौरान पढ़ा जैक गुडी की किताब ‘दी ईस्ट एंड दि वेस्ट’ में , फिर आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस के ‘इनसाइक्लोपीडिया आफ इंडियन डायस्पोरा’ में कि रूस के अस्त्राखान शहर में भारतीय
व्यापारियों की अच्छी –ख़ासी बस्ती थी, जार के दरबार में
प्रभाव था । बस , उसी समय तय कर लिया था कि अस्त्राखान जाना
ज़रूर है जल्दी से जल्दी । ...” -6
यह एक ऐसा सूत्र था जो लेखक
को आमंत्रित कर रहा था भारतीय व्यापार से जुड़े एक ऐतिहासिक और अलक्षित अध्याय की
पुनर्रचना हेतु खोजपूर्ण यात्रा के
लिए.
यदि किसी देश की आत्मा किसी कवि में बसती हो
तो ऐसे देश की यात्रा करके कोई भी लेखन अपने को सौभाग्यशाली क्यों कर न समझे । कवि
चारेन्त्स के शहर आरमीनिया का जिक्र करते हुए पुरुषोत्तम अग्रवाल एक कवि के संघर्ष
और और मानवता की रक्षा हेतु जीवन की यातना पूर्ण आहुति को लेखकीय श्रद्धा से याद
करते हैं । पूंजीवाद की विकरालता और
अमानुषिकता को ‘अश्लीलता’
शब्द से परिभाषित करते हुए वह बाज़ार से एक बुद्दिजीवी रचनाकार की लड़ाई को निरंतर
संघर्ष के रूप में देखते हैं . आखिरकार एक बुद्दिजीवी विचारक ही बाज़ार की
रंगिनियों के उसपार के अंधेरे की पहचान कर पाता है और उसके विरुद्ध आवाज़ उठा कर
समाज को जगाने का जोखिम भरा काम भी करता है । इतिहास के पन्नों में दर्ज ऐसे सचेत
रचनाकारों को नेत्सनाबूद कर देने और पूरी
की पूरी जातियों के नरसंहार की नृशंस घटनाओं के हवाले से अग्रवाल जी बताते हैं कि
आरमीनिया में 1920 के दौर में तुर्की के आटोमान साम्राज्य द्वारा किए गए नरसंहार
को तुर्की आज भी आधिकारिक रूप से स्वीकार नहीं कर रहा . इतिहास के अनुभव बताते हैं कि काल के पन्नों में दर्ज अमानवीयता
का यह बोध आने वाली पीढ़ियों की स्मृति में किसी न किसी रूप में दर्ज होता रहता है
और मानवता के पक्ष में ऐसे हमलों के विरोध के लिए एक बड़ा जन समुदाय सचेत रहता है ।
सितम्बर का महीना है . यूँ
तो पुरुषोत्तम अग्रवाल अपनी विभागीय यात्रा के तहत आर्मिनिया कि राजधानी येरेवान
पहुँचते हैं पर संकल्प मन में कुछ और ही है . यहाँ उपलब्ध गाड़ी के ड्राइवर आरमेन का न केवल अंग्रेजी भाषा से बल्कि यहाँ के
इतिहास –भूगोल से परिचित होना लेखक की जिज्ञासाओं के अनुकूल बैठता है . उपलब्ध समय
में देखे जा सकने वाले स्थानों के चुनाव और इतिहास में दर्ज परिवर्तनों के राज़
जानने की दृष्टि से भी .
राजसत्ता और धार्मिक आस्था
का रिश्ता बहुत गहरा है . आक्रमणकारी राजसत्ताएं अपने जड़ें जमाने के लिए चली आ रही
धार्मिक परम्पराओं और धार्मिक विश्वासों को नष्ट करना और अपनी आस्थाओं को आरोपित
करना , लंबे समय तक अपनी जड़ें ज़माने के लिए ज़रुरी समझती हैं . बहुदेववादी आर्मीनियाई समाज में एकेश्वरवादी अवधारणा
का आरोपण जिन स्थितियों में करने के प्रयास हुए उसे लेखक जर्थुस्त्रीवाद पर
अध्ययनपरक जानकारी देने के बाद ईसाइयत का प्रभाव मानते हैं और पुरुषवादी सत्ता के
बर्चस्व की स्थापना का प्रयास भी .
“...तरदात (तृतीय) ने ३०१
इस्वी में ईसाइयत को शासकीय धर्म घोषित कर दिया , और देवी माँ संदारामेत के भव्य
मंदिर को धवस्त करके एज्मिआजान चर्च का निर्माण किया .एकेश्वरवादी मजहबों की
मिज़ाज शुरू से ही पितृसत्तात्मक रहा है , ये बहुदेववाद के ही नहीं , देवी पूजा ,
मातृ शक्ति पूजा के भी सख्त खिलाफ रहे हैं ... “ -४०
सत्ता और समाज , और कभी –कभी केवल सत्ता मुक्ति की आकंक्षा और चाह में
पुराने प्रतीकों को ध्वस्त करके उन नए प्रतीकों का निर्माण करती है जिनसे उसकी
अस्मिता की पहचान होती है . पुरुषोतम अग्रवाल विक्ट्री पार्क की यात्रा के दौरान यह
तथ्य रेखांकित करते हैं . सोवियत रूस के प्रभाव से मुक्त होने के बाद जहाँ स्टालिन
की प्रतिमा थी उसका स्थान अब माँ आरमीनिया की प्रतिमा ले चुकी है और लेनिन चौक अब
रिपब्लिक चौक हो चुका है .
आर्मिनिया के इतिहास और
समाज के निर्माण के समझने की दृष्टि तय करते हुए पुरुषोत्तम अग्रवाल ऐतिहासिक
संघर्षों से जन चेतना के निर्माण में दो परतों को महत्वपूर्ण मानते हैं –
“बहुदेववादी समाज के
एकेश्वरवादी समाज में बदलने की परत , और समाजवाद के नाम पर कायम की गई तानाशाही और
रुसी बर्चस्व से बाहर आने की परत . “ -४१
इस अध्याय में ईसाइयत और
बहुदेववाद की चर्चा के मध्य गारनी के सूर्य मंदिर सहित स्थापत्य और कला की गवाह अनेक
ऐतिहासिक इमारतों से गुज़रते हुए लेखक को यह सवाल परेशान करता है कि दुनिया के
इतिहास में इन भव्य इमारतों के निर्माण करवाने वालों को ही हम जानते हैं उस
निर्माण से जुड़े रहे कामगारों की यातना और शोषण के बारे में तथ्य नहीं के बराबर
उपलब्ध हैं .
अपने अध्ययन और यात्रा के
दौरान पुरुषोत्तम अग्रवाल का विचारक और आलोचक मुखर हो जाता है . एक ज़रुरी सवाल
उठाते हुए वह कहते हैं कि यदि हिंदुओं में समुद्र पार करने कि धारणा बलवती थी तो फिर –“वे उस
समय की ‘सभ्य दुनिया’ के कोने –कोने में , पूरब से पश्चिम तक –वियतनाम , कम्पूचिया
से लेकर रूस और इथोपिया तक –पहुँच कैसे जाते थे ?” जिस मारवाड़ी समुदाय में समुद्र पार न करने जैसी रूढ़ीवादिता
सबसे अधिक समझी गई , कैसे उसी समाज के लोग व्यापार के सिलसिले में समुद्र पार फैले
हुए थे , यह सवाल भी किताब उठाती है और इस विषय पर नए सिरे से विचार करने का सूत्र
इतिहासविदों और विचारकों के समक्ष रखती है . वह भारत में सदियों से चली आ रही उस
सामाजिक जड़ता पर भी प्रश्न उठाते हैं जिसमें अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के चलते बढ़ी
आवा –जाही के बावजूद आज भी वर्ण व्यवस्था और जाति –प्रथा
की जड़ें उतनी ही गहरी हैं , जितनी सदियों पहले थीं .
स्टीफन फ्रेडरिक डेल की
पुस्तक ‘इन्डियन मर्चेंट्स एंड यूरेशियन ट्रेड’ के माध्यम से पुरुषोत्तम अग्रवाल
को सुरेन्द्र गोपाल के बारे में जानकारी मिलती है और वह न केवल मारवाड़ी व्यापारी बारायेव
के बारे में जान पाते हैं बल्कि सुरेन्द्र् गोपाल का अता पता खोज कर उनसे
मुलाकात भी कर पाते हैं . यहाँ अरूप बनर्जी की भी एक पुस्तक का जिक्र है . इस
यात्रा में हम देख पाते हैं यह किताब शुरूआत में रास्ते में आ गए पड़ाव पर रुकने का आभास देने
वाली चंद दिनों की यात्रा नहीं है बल्कि गहरे अध्ययन से उपजे चिंतन पर आधारित
यात्रा है , जो पुन: हिंदी सराय के इतिहास को खंगालने की प्रतिबद्धता के साथ
समाप्त होती है.
अग्रवाल जी की फेसबुक पर
सक्रियता के कुछ रोचक सन्दर्भ इस पुस्तक में भी जुड़े हैं . जवाहर लाल नेहरु
विश्वविद्यालय के लोगों के दुनिया के हर हिस्से में मिल जाने की चर्चा की चर्चा
में फेसबुक पर लेखक का ध्यान इस मूल सवाल की और जाता है कि क्यों कर सफलता की राह पर संघर्षरत पीढ़ी निराशा में अपने
संघर्ष की तुलना सफलता प्राप्त कर चुके लोगों से करते हुए स्वयं को बेचारगी का भाव
लिए हाशिए पर खड़ा पाती है , ऐसे में हम जनसँख्या के उस हिस्से को क्यों भूल जाते
हैं जो सचमुच हाशिए पर खड़ी है .
अस्त्राखान के बारे में पहले –पहल प्राप्त
जानकारी के स्रोत ‘डिस्कवरी आफ इण्डिया’
का हवाला देते हुए लिखते हैं –“जार मिखाइल फेद्रोविच (१६१३ -१६४५ ) के शासन-काल
में भारतीय व्यापारी वोल्गा किनारे बसे हुए थे . अस्त्राखान की सराय ,वहां के
गवर्नर के आदेश पर , १६२५ इस्वी में बनाई
गई थी . १६९५ में रूस का व्यापारिक प्रतिनिधि सिमियन मेलेंकी औरंगजेब के दरबार में
हाजिर हुआ था . १७२२ में जार पीटर ने अस्त्राखान की यात्रा की और भारतीय
व्यापारियों की समस्याएं सुनीं ....”
यही वह सूत्र है जो ‘अकथ कहानी प्रेम की’ लिखने
के दौरान किये गए शोध के मध्य पुरुषोत्तम अग्रवाल को हिंदी सराय की खोज से जोड़ता
है . अस्त्राखान की यात्रा में भाषा और स्थानीयता जैसी समस्या तो अनिल जनविजय जैसे
मित्र के साथ के चलते कोई समस्या ही नहीं रहती , समस्या जो लेखक को खलती है वह है
समय की कमी की . बावजूद कम समय के जितना कुछ विवरण इस पुस्तक में आ चुका है वह खासा
महत्वपूर्ण है और अगली यात्रा की संभावनाओं से भरपूर भी . अस्त्राखान में पहले दिन
की खोज में तो लेखक के हाथ निराशा ही लगती है . समय की गति और शासन के चक्रव्यूह
में उलझ कर हिन्दुस्तानी समुदाय की पहचान के अवशेष तक उन्हें नहीं मिल पाते ,
सिवाय उस ईमारत के जिस पर लगी पट्टिका ही उस स्थान के कभी हिंदी सराय होने की गवाही
देती है . यहाँ भी वह सराय शब्द के प्रचलित अर्थ से भिन्न अर्थ की पहचान करते हैं –“
चंगेज खां के
पोते बातू के नाम पर सराय
बातूर नाम दिया गया राजधानी को , सत्ता केन्द्र को , यानी बातू का महल . “ यानी अस्त्राखान की हिंदी सराय व्यापारियों
रास्ते में रात भर विश्राम करने का ठिकाना मात्र नहीं थी बल्कि हिंदी व्यापारियों की सम्पन्नता का प्रतिक
थी .
इरादे अगर अटल हों तो समय
की कमी भी आपको लक्ष्य तक पहुँचने से रोक नहीं सकती . हिंदी सराय की जड़ों तक
पहुँचने की जो छटपटाहट लेखक में नज़र आती है वह उसे हिंदी सराय के रहस्य तक पहुंचा
ही देती है . यह अस्त्राखान में उनका दूसरा दिन है. सिटी म्यूजियम में भी कोई
सूत्र हाथ नहीं लग सका है . अब आप जा पहुँचते हैं सिटी लाइब्रेरी और यहाँ आप के
हाथ लगता है कारू का खजाना . यहाँ जो दस्तावेजी विवरण पुरुषोत्तम अग्रवाल ने
प्रस्तुत किये हैं और करनेव द्वारा चित्रित हिन्दुओ द्वारा पूजा –अर्चना के चित्र
भी , वह पाठक को एक अलग कल्पना लोक में ले जाते हैं . यह लोक अस्त्राखान में हिंदू
व्यापारियों के बर्चस्व और फिर उनके पतन की तथ्यों पर आधारित कहानी से जुड़ा है .
इस वृतांत को पुरुषोत्तम अग्रवाल शोध वृत्त या यात्रा वृत्त मानने की छूट पाठक को
देते हैं . बहुत सारे शोधपरक ब्यौरे पाठक
को उकता भी सकते थे पर भाषागत प्रयोग , पाठ को रोचक बनाये रखने की कला और बीच में
विचारक के मुखर होने से वृतांत की एकरस होने से बच जाता है . आप उस विचित्र लोक में जा पहुँचते हैं जहाँ सदियों
पहले हजारों मील दूर पूरी की पूरी हिदू सभ्यता अपने रीति –रिवाजों के साथ व्यापारिक
बर्चस्व के बलबूते मौजूद थी , लेकिन जो हमलावर नहीं थी और न ही औपनिवेशिक ताकत ,
इसीलिए उसे समय बदल जाने पर पतन के दिन भी देखने ही थे .
यहाँ उपलब्ध जानकारी के
आधार पर लेखक बताते हैं कि अस्त्राखान के सबसे धनी व्यापारी तो थे फते चंद लेकिन इसमें
सबसे रोचक वृतांत है मारवाड़ी व्यापारी बारायेव का . –“ ...बीस साल के छोटे
से अरसे में ही मारवाड़ी बारायेव ने जो उतार –चढ़ाव देखे , उनसे लगता है जैसे कि वह
जीवन नहीं , कोई उपन्यास जी रहा था .”
कुछ लोगों के जीवन का फलक सचमुच किसी उपन्यास से कम नहीं होता . और उस जीवन को प्रस्तुत करने वाले लेखन की शैली भी
किसी कथाकार की सी हो तो यह स्थापना और भी पुख्ता हो जाती है . बारायेव की सत्ता
में पैठ और फिर ओरेनबर्ग के संस्थापक से व्यापारिक समझौते की पहल अस्त्राखान के
गवर्नर को नागवार गुजरी और बारायेव जैसे व्यक्ति को बंदी बना लिया गया . यात्रा की
इस उपलब्धि से लेखक की सारी उद्यिग्नता, संशय और उत्तेजना एक गहरे ठहराव में बदल
जाती है –“अनिल इधर –उधर टहल रहे थे
, मैं एक बैंच पर बैठा था , चुपचाप . कोई यादें नहीं , कोई बातें नहीं , . इक्का –दुक्का
कोई बात मन में आये भी तो बिना कोई छाप छोड़े फिसल जाए .कोई थकान नहीं , उत्तेजना भी
नहीं . “
इस किताब को लिखते हुए कई और किताबों के सूत्र
भी पुरुषोत्तम अग्रवाल पाठकों को देते
चलते हैं . गेगहार्द मठ घूमते हुए अम्बार्तो इको के उपन्यास ‘नेम आफ दी रोज’ तथा
‘बदोलिनो’ , जैक गुडी की किताब ,द ईस्ट इन द वेस्ट’, अमिताभ घोष की ‘रिवर आफ
स्मोक’ , अनुपम मिश्र की ‘आज भी खरे हैं तालाब’ , मुराकामी की ‘वन क्यू ऐट फॉर’ और
भी न जाने कितनी किताबें .इस प्रक्रिया में एक और सवाल उन्हें परेशान करता है कि भारतीय
व्यापारी धार्मिक महत्व की पांडुलिपियाँ तैयार करते थे पर अपनी यात्राओं के अनुभव और
ब्यौरे क्यों नहीं लिखते थे . इस संशय में यह उम्मीद भी शामिल है कि जिन भारतीय
पांडुलिपियों को वह अगली यात्रा में देख पाएंगे , कौन जाने उस उनमें कोई
महत्वपूर्ण सूत्र हाथ लग जाए . फिलहाल हिंदी सराय और बारायेव के बारे में जो भी प्राथमिक
जानकारी है वह गैर भारतीय दस्तावेजों के माध्यम से ही प्राप्त होती है .
यह रोमांचक और बौद्धिक यात्रा
समाप्त होती है ,मानवीय संवेदनाओं से भरपूर हवाई यात्रा के अंतिम पन्नों के साथ और
इस सवाल के साथ भी कि उन पन्नों की ज़रूरत सचमुच थी क्या किताब को मुकम्मल बनाने के
लिए . सबसे बड़ी बात यह कि पाठकों और
शोधकर्ताओं को यह किताब केवल सूत्र सूचनाएँ ही प्रदान नहीं करती बल्कि जड़वादी सोच
के विपरीत नई शोधपरक दृष्टि से भी लैस करती है .
निरंजन देव शर्मा , भारत भारती
स्कूल , ढालपुर , कुल्लू , हि प्र -१७५१०१
फोन -९८१६१ ३६९००
हिन्दी सराय अस्त्राखान वाया येरेवान –पुरुषोत्तम अग्रवाल , राजकमल प्रकाशन ,पहला संस्कारण -2013 , मूल्य – 395/-